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Monday, 2 April 2012

बड़े-बड़े शिकारी जीव-जन्तु भी डरते हैं छछूंदर से

यदि आपसे पूछा जाय कि संसार का सबसे भयंकर और खतरनाक जीव कौन है, तो आपका जवाब होगा-कोबरा। लेकिन जीव वैज्ञानिक का कहना है कि संसार का सबसे खतरनाक घातक और भयंकर जीव है-छछूंदर!लेकिन आपको यह जानकर काफी आश्चर्य हो रहा होगा कि यह छोटा सा नगण्य जीव इतना खतरनाक, घातक और भयंकर हो सकता है। जिसका वजन मात्र कुछ औंस और लंबाई छह इंच से अधिक नहीं होती। यह डेढ़ साल के भीतर अपनी सारी शक्ति खोकर प्राय: मर जाता है। छछूंदर इतना खतरनाक जीव है कि यह किसी से नहीं डरता है। यह अपने से आकार में बड़े जीवों को भी मारकर आसानी से पचा लेता है। यह अपना भोजन देखकर काफी उतावला हो जाता है और उसे तत्क्षण समाप्त कर देता है। बड़े शिकारी कुत्ते या लोमड़ी के सामने छछूंदर की क्या बिसात! लेकिन बड़े शिकारी कुत्ते या लोमड़ी भी इससे घबराते हैं। कुत्ते या लोमड़ी इसे अपने दांतों में दबोचते ही पलभर में दूर भाग खड़े होते हैं। एक उल्लू ही है जो इसे मारकर खा सकता है। लेकिन सभी उल्लू इसे खाकर पचा नहीं सकते। कुछ बिरले उल्लू ही इसे उदरस्थ कर सकते हैं। बाकी तो सभी इसे खाकर बीमार पड़ जाते हैं। छछूंदर जितना छोटा जीव है, उतना ही पेटू है जितना इसका वजन है, उतना भोजन यह प्रति तीन घंटे में चट कर जाता है। इस भोजन से प्राप्त शक्ति को इतनी जल्दी खर्च कर देता है कि यदि कभी यह दिनभर भूखा रह जाय तो दिन डूबने के पूर्व ही इस संसार से बिदा हो जायेगा।
छछूंदर वैसे तो वनवासी प्राणी है, किन्तु गांव-शहरों में भी यह निवास करता है। यह दिन रात भोजन की खोज में भटकता रहता है। छछूंदर प्राय: हरे-भरे मैदानों में अपने शिकार की खोज में यत्र-तत्र सूंघता हुआ विचरण करता है और कभी-कभी उससे जा टकराता है, क्योंकि इसकी आंख बहुत ही छोटी होती हैं और इनसे लगभग कुछ नहीं दिखाई पड़ता है। यह चीते की तरह सीधे अपने शिकार छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े, तितली या झींगुर पर वार करता है। छछूंदर सर्वभक्षी है। भोजन करते समय आनंदोल्लास की उत्तेजना से इसका सारा शरीर कांपता रहता है।
छछूंदर मनुष्य के लिए काफी उपयोगी जीव है। कृषि और वनसंपदा को हानि पहुंचाने वाले कीड़े-मकोड़ों को यह आसानी से उदरस्थ कर लेता है। यह चूहे तक को आसानी से मार कर, उसकी हड्डी ही नहीं बालदार खाल को भी आसानी से हजम कर लेता है। जहरीले भुजंग भी इससे डरते हैं, क्योंकि वे इसका सबसे प्रिय भोजन है। छछूंदर के थूक की गिल्टियों में काले नाग के जैसा भयंकर विष पाया जाता है इसके दांत लगते ही शिकार को कुछ सूझ नहीं पड़ता। मस्तिष्क में धुंध छा जाती है। सांस लेने में कष्ट होता है इसके बाद लकवा (फालिज) पड़ जाते हैं।
जब कभी इसे किसी बड़े शत्रु से सामना हो जाता है और इसे दबोच लेता है, तो यह अपनी तंत्र शक्ति का प्रयोग करता है। इसे पेट में एक ऐसी गिल्टी होती है, जिसे यह जब चाहे अपनी इच्छानुसार उपयोग कर सकता है। इस गिल्टी से एक बहुत ही भयंकर गंध या गैस निकलती है, जो पलभर में इस पर आक्रमण करने वाले शिकारी जीव को पलायन करने को बाध्य कर देता है। उस गंध के कारण व शिकारी जीवन बीमार होकर या तो समर्पण कर देता है या पलायन कर जाता है।
इसकी एक और विशेषता यह है कि यह किसी से डरता नहीं है। यह साहसी भी है और गुस्सैला भी। फुर्ती का तो कहना ही क्या? यदि इसे सांस के साथ छोड़ दिया जाए, जो यह जल्द से जल्द सांप को मारकर खा जाएगा।
छछूंदर का जन्म और जीवन क्रम किसी खोखले पेड़ से शुरू होता है। उस पेड़ के कोटर में अथवा किसी गङ्ढे के सुरक्षित स्थान में जन्म लेता है। मादा छछूंदर के छोटी-छोटी मधु मक्खियों जैसे चार से दस तक बच्चे पैदा होते हैं, एक सप्ताह के भीतर घोंसले के आसपास रेंगने लगते हैं। जब ये बच्चे तीन-चार सप्ताह के हो जाते हैं तो इनकी माता इनका अन्न प्राशन संस्कार करती है और इन्हें छोटे-छोटे दीमकों का भोजन प्रदान करती है। कुछ समय उपरांत इनकी माता इन्हें अपने निवास स्थान से बाहर खदेड़ देती है और उस दिन से ये अपने पैरों पर खडे होकर भोजन की खोज में भटकने लगते हैं।

गुलमोहर


गुलमोहर लाल फूलों वाला पेड़ है। इसकी जन्मभूमि मेडागास्कर को माना जाता है। कहते है कि सोलहवीं शताब्दी में पुर्तगालियों ने मेडागास्कर में इसे देखा था। अठ्ठारवीं शताब्दी में फ्रेंच किटीस के गवर्नर काउंटी डी प़ोएंशी ने इसका नाम बदल कर अपने नाम से मिलता-जुलता नाम पोइंशियाना रख दिया। बाद में यह सेंट किटीस व नेवीस का राष्ट्रीय फूल भी स्वीकृत किया गया। इसको रोयल पोइंशियाना के अतिरिक्त फ्लेम ट्री के नाम से भी जाना जाता है। फ्रांसीसियों ने संभवत: गुलमोहर का सबसे अधिक आकर्षक नाम दिया है उनकी भाषा में इसे स्वर्ग का फूल कहते हैं। वास्तव में गुलमोहर का सही नाम 'स्वर्ग का फूल' ही है। भरी गर्मियों में गुलमोहर के पेड़ पर पत्तियाँ तो नाममात्र होती हैं, परंतु फूल इतने अधिक होते हैं कि गिनना कठिन। यह भारत के गरम तथा नमी वाले स्थानों में सब जगह पाया जाता है। गुलमोहर के फूल मकरंद के अच्छे स्रोत हैं। शहद की मक्खियाँ फूलों पर खूब मँडराती हैं। मकरंद के साथ पराग भी इन्हें इन फूलों से प्राप्त होता है। फूलों से परागीकरण मुख्यतया पक्षियों द्वारा होता है। सूखी कठोर भूमि पर खड़े पसरी हुई शाखाओं वाले गुलमोहर पर पहला फूल निकलने के एक सप्ताह के भीतर ही पूरा वृक्ष गाढ़े लाल रंग के अंगारों जैसे फूलों से भर जाता है। ये फूल लाल के अलावा नारंगी, पीले रंग के भी होते हैं।
भारत में इसका इतिहास करीब दो सौ वर्ष पुराना है। संस्कृत में इसका नाम 'राज-आभरण' है, जिसका अर्थ राजसी आभूषणों से सजा हुआ वृक्ष है। गुलमोहर के फूलों से श्रीकृष्ण भगवान की प्रतिमा के मुकुट का शृंगार किया जाता है। इसलिए संस्कृत में इस वृक्ष को 'कृष्ण चूड' भी कहते हैं। भारत के अलावा यह पेड़ युगांडानाइजीरियाश्री लंकामेक्सिकोआस्ट्रेलिया तथा अमेरिका में फ्लोरिडा व ब्राजील में खूब पाया जाता है। आजकल इसके वृक्ष यूरोप में भी देखे जा सकते हैं। मेडागास्कर से इस पेड़ का विकास हुआ पर अब वहां यह लुप्त होने की दशा में है इसलिए इसकी मूल प्रजाति को अब संरक्षित वृक्षों की सूची में शामिल कर लिया गया है। गुलमोहर के फूल मकरंद के अच्छे स्रोत हैं। शहद की मक्खियाँ फूलों पर खूब मँडराती हैं। मकरंद के साथ पराग भी इन्हें इन फूलों से प्राप्त होता है। सूखी कठोर भूमि पर खड़े फैली हुई शाखाओं वाले गुलमोहर पर पहला फूल निकलने के एक सप्ताह के भीतर ही पूरा वृक्ष गाढ़े लाल रंग के अंगारों जैसे फूलों से भर जाता है। वसंत से गर्मी तक यानी मार्च अप्रैल से लेकर जून जुलाई तक गुलमोहर अपने उपर लाल नारंगी रंग के फूलों की चादर ओढ़े भीषण गर्मी को सहता देखने वालों की आंखों में ठंडक का अहसास देता है। इसके बाद फूल कम होने लगते हैं पर नवंबर तक पेड़ पर फूल देखे जा सकते हैं। इसकी इसी विशेषता के कारण पार्क, बगीचे और सड़क के किनारे इसे लगाया जाता है|
गुलमोहर के फूलों के खिलने का मौसम अलग अलग देशों में अलग अलग होता है। दक्षिणी फ्लोरिडा में यह जून के मौसम में खिलता है तो कैरेबियन देशों में मई से सितम्बर के बीच। भारत और मध्यपूर्व में यह अप्रैल-जून के मध्य फूल देता है। आस्ट्रेलिया में इसके खिलने का मौसम दिसम्बर से फरवरी है जब इसको पर्याप्त मात्रा में गरमी मिलती है। उत्तरी मेरीयाना द्वीप द्वीप पर यह मार्च से जून के बीच खिलता है।

अमलतास


     अमलतास पीले फूलो वाला एक शोभाकर वृक्ष है। अमलतास को संस्कृत में व्याधिघात, नृप्रद्रुम इत्यादि, गुजराती में गरमाष्ठो, बँगला में सोनालू तथा लैटिन में कैसिया फ़िस्चुला कहते हैं। शब्दसागर के अनुसार हिंदी शब्द अमलतास संस्कृत अम्ल (खट्टा) से निकला है।
     भारत में इसके वृक्ष प्राय: सब प्रदेशों में मिलते हैं। तने की परिधि तीन से पाँच फुट तक होती है, किंतु वृक्ष बहुत उँचे नहीं होते । शीतकाल में इसमें लगनेवाली, हाथ सवा हाथ लंबी, बेलनाकार काले रंग की फलियाँ पकती हैं। इन फलियों के अंदर कई कक्ष होते हैं जिनमें काला, लसदार, पदार्थ भरा रहता है। वृक्ष की शाखाओें को छीलने से उनमें से भी लाल रस निकलता है जो जमकर गोंद के समान हो जाता है। फलियों से मधुर, गंधयुक्त, पीले कलझवें रंग का उड़नशील तेल मिलता है।