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Dr. Norman Borlaug
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हरित क्रांति का ‘अग्रदूत’
वे खुद को “ग्रेट डिप्रेशन की देन कहा करते थे” और वे एक ऐसे शख्स थे जिन्होंने दुनिया की खाद्य समस्या को हल करने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। उन्हें ‘हरित क्रांति का जनक’ भी कहा जाता है और शांति के नोबेल पुरस्कार, प्रेजीडेंट मेडल आफ फ्रीडम और कांग्रेसनल गोल्ड मेडल के साथ ही भारत के नागरिक सम्मान पद्म विभूषण सम्मान से भी नवाजा जा चुका है। जी हां, यहां बात हो रही है, नॉर्मन अर्नेस्ट बोरलॉग की।
नॉर्मन अर्नेस्ट बोरलॉग
नोबेल पुरस्कारः 1970, शांति के लिए
जन्मः 25 मार्च, 1914
मृत्युः 12 सितंबर, 2009
शुरूआती दौर
नॉर्मन का जन्म 25 मार्च, 1914 में आयोवा के क्रेस्को प्रांत में हुआ। उनके परिवार के पास 40 हेक्टेअर जमीन थी जिस पर वह मक्का, बाजरा जैसी फसलों की खेती किया करते थे। इसी तरह नॉर्मन का शुऱुआती जीवन (7-17 साल) खेतों पर ही गुजरा। मजेदार बात यह कि न्यू ओरेगॉन के जिस स्कूल में वह पढ़ा करते थे उसमें एक ही कमरा और एक ही टीचर हुआ करते थे। बोरलॉग बड़े हुए तो उनके पास कॉलेज जाने के लिए पैसे नहीं थे। लेकिन ग्रेट डिप्रेशन एरा प्रोग्राम, जिसे नेशनल यूथ एडमिनिस्ट्रेशन के नाम से भी जाना जाता है, के जरिये बोरलॉग मिनेपॉलिस की मिनेसोटा यूनिवर्सिटी में फॉरेस्टरी का अध्ययन करने लगे. उन्होंने 1942 में प्लांट पैथोलॉजी और जेनेटिक्स में पीएच.डी की डिग्री हासिल कर ली। अपने अध्ययन की बदौलत बोरलॉग का 1942 से 1944 का समय विलमिंगटन के डूपोंट में बतौर माइक्रोबायोलॉजिस्ट के काम करते हुए गुजरा।
मेक्सिको में अनुसंधान
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Wheat Crops |
1944 में विशेषज्ञों ने विकासशील देशों में अकाल की संभावनाओं की आशंका जताई क्योंकि वहां फसलों की अपेक्षा जनसंख्या तेजी से बढ़ रही थी। बोरलॉग ने मेकिस्को में रॉकफेलर फाउंडेशन से पूंजी प्राप्त परियोजना में काम करना शुरू कर दिया। जहां उनका काम गेहूं का उत्पादन बढ़ाने की दिशा में अनुसंधान करना था। जिसमें वे जेनेटिक्स, प्लांट ब्रीडिंग, प्लांट पैथोलॉजी, कृषि विज्ञान (एग्रोनॉमी), मृदा विज्ञान (सॉयल साइंस) और अनाज प्रौद्योगिकी पर काम कर रहे थे। इस परियोजना का उद्देश्य मेक्सिको में गेहूं उत्पादन में वृद्धि करना था क्योंकि उस समय मेक्सिको भारी मात्रा में गेहूं का आयात कर रहा था। बोरलॉग ने माना था कि मेक्सिको के शुरूआती साल काफी मुश्किलों भरे रहे। लेकिन बोरलॉग की मेहनत रंग लाई और उन्होंने पिटिक 62 और पेनजामो 62 किस्में तैयार कीं। इसने मैक्सिको के गेहूं उत्पादन के संपूर्ण परिदृश्य को ही बदल कर रख दिया। इस तरह 1944 में गेहूं की कमी की मार झेल रहे मेक्सिको में 1963 में गेहूं का उत्पादन छह गुना अधिक हो चुका था।
भारत मे हरित क्रांति में योगदान
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Dr. Norman Borlaug In research Field |
1960 के दशक के दौरान भारत में सूखे की भयानक स्थितियां पैदा हो गई थीं, जिसके चलते देश में खाद्यान्न संकट पैदा हो गया था और देश में अमेरिका से गेहूं आयात किया जा रहा था। बोरलॉग अपने साथी डॉ. रॉबर्ट ग्लेन एंडरसन के साथ 1963 में भारत आए, ताकि वह मेक्सिको में आजमाए गए अपने मॉडल को यहां भी लागू कर सकें। डॉ. एम. एस स्वामीनाथन की देख-रेख में प्रयोग का सिलसिला नई दिल्ली के पूसा स्थित इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट में उन्नत किस्म की फसलों को बोने के साथ हु्आ। इसी तरह का प्रयोग लुधियाना, पंतनगर, कानपुर, पुणे और इंदौर में भी किया गया। परिणाम बेहतरीन मिले। लेकिन कृषि की नई तकनीकों को लेकर विरोध के चलते बोरलॉग भारत में नई किस्म का रोपण नहीं कर सके। जब 1965 में सूखे के हालात और भी बदतर हो गए, उस समय सरकार ने कदम आगे बढ़ाए और गेहूं की उन्नत किस्मों की बुवाई को अपनी मंजूरी दे दी। मेक्सिको में अपनाई गई उन्नत किस्मों के बीजों और तकनीक का दक्षिण एशिया में प्रयोग कर बोरलॉग ने यहां गेहूं के उत्पादन को 1965 और 1970 के बीच दोगुना कर दिया।
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Dr. Borlaug With Dr. MS Swaminathan |
भारत ने भी कदम आगे बढ़ाए और मेक्सिको से मेक्सिकन गेहूं के 18,000 टन बीज आयात किए। 1968 तक यह साफ हो गया था कि भारत में गेहूं की बंपर फसल हुई है, क्योंकि इसकी कटाई के लिए खेतिहर मजदूरों की कमी पड़ गई, बैलगाड़ियां भी कम पड़ने लगीं और तो और इन्हें रखने के लिए जगह और डालने के लिए बोरियों की भी भारी कमी हो गई। कई इलाकों में तो स्कूल बंद करने पड़े और वहां अनाज को रखा गया। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एंव कृषि संगठन का कहना है कि 1961 और 2001 के बीच के 40 सालों में भारत की जनसंख्या दोगुनी से ज्यादा हो गई है लेकिन इसने अपने अनाज उत्पादन को 8.7 करोड़ से 23.1 करोड़ टन पहुंचा दिया है। इसके साथ ही कृषि की जाने वाली भूमि में भी इजाफा हुआ है।
आलोचकों को जवाब
हाल के कुछ वर्षों में बोरलॉग को अपनी उच्च उत्पादन क्षमता वाली फसलों के कारण पर्यावरणविदों और सामाजिक-आर्थिक आलोचना का शिकार भी होना पड़ा है। भारत में कहा गया कि उनकी विधियों से फसलों की विविधता पर असर पड़ा है और एग्रो कैमिकल्स पर निर्भरता भी काफी बढ़ी है, जिनसे जमीन में जहर घुल जाता है और जिसका फायदा अमेरिका की बहुराष्ट्रीय कंपनिया ले रही हैं।
पर्यावरणविदों की इस लॉबी को जवाब देते हुए बोरलॉग ने कहा था, ‘पश्चिमी देशों के इस तरह के अधिकतर पर्यावरणविद् संभ्रांत हैं। जिन्होंने कभी इस बात का एहसास नहीं किया कि भूख होती क्या है। ये ब्रुसेल्स या वाशिंगटन में अपने आलीशान दफ्तरों में बैठकर लॉबी करना जानते हैं।’
ऑर्गेनिक फार्मिंग की दीर्घकालिकता पर उनका कहना था कि विश्व हर साल 8.2 करोड़ टन कैमिकल फर्टीलाइजर के जरिये पौधे के विकास के लिए जरूरी नाइट्रोजन की आपूर्ति करता है। अगर इस नाइट्रोजन के स्रोत को बदला जाए तो इसके लिए तीन अरब टन मवेशियों की खाद की जरूरत होगी। इसके लिए हमें मवेशियों की मौजूदा संख्या को छह गुना बढ़ाना होगा। इससे क्या समस्या पैदा हो सकती है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। बोरलॉग बायोटेक्नोलॉजी के भी समर्थक थे।
वे एक दूरदर्शी थे तभी तो उन्होंने एक बार कहा था, ‘2050 तक विश्व के जनसंख्या के दस अरब होने का अनुमान है, ऐसे में हमें वैश्विक खाद्य उत्पादन को भी दोगुना करना होगा।’