भारतीय मूल की वैज्ञानिक डॉ. मंदा बनर्जी ने प्राचीन ब्रह्मांड में विशालकाय ब्लैकहोल के झुंड का पता लगा कर पूरी दुनिया के खगोल वैज्ञानिकों में जबरदस्त हलचल मचा दी है। ये ब्लैकहोल अभी तक अज्ञात थे। डॉ. बनर्जी के नेतृत्व में कैम्बि्रज की एक रिसर्च टीम ने पृथ्वी से करीब 11 अरब प्रकाश वर्ष दूर इन ब्लैकहोल की मौजूदगी का पता लगाया है। रिसर्चरों का अनुमान है इस झुण्ड में कम से कम 400 ब्लैकहोल हैं जिनका रेडिएशन पृथ्वी पर पहुंच रहा है। वैज्ञानिक समुदाय इस बात पर हतप्रभ है कि इतने विराट ब्लैकहोल अभी तक हमारे पर्यवेक्षण के दायरे में क्यों नहीं आए। ब्लैकहोल का यह झुंड धूल के चक्रीदार बादलों से घिरा हुआ है। इसी वजह से इन्हें अभी तक देख पाना संभव नहीं था। अब डॉ. बनर्जी की टीम ने अत्याधुनिक इंफ्रारेड टेलीस्कोप से धूल के बादलों को भेदते हुए इस ब्लैकहोल झुंड को खोज लिया है।
डॉ. बनर्जी ने ब्रिटेन की रॉयल एस्ट्रोनोमिकल सोसायटी की मासिक पत्रिका में अपनी खोज की जानकारी दी है। उन्होंने लिखा है कि रिसर्च टीम के निष्कर्षो से विशाल ब्लैकहोल के अध्ययन पर गहरा असर पड़ेगा। वैसे तो इन ब्लैकहोल का अध्ययन पिछले कुछ समय से हो रहा है, नए निष्कर्षो से संकेत मिलता है कि कुछ अत्यंत विशाल ब्लैकहोल हमारी दृष्टि से छुपे हुए हैं। ब्लैकहोल के झुंड में एक दैत्याकार ब्लैकहोल है जिसका द्रव्यमान सूरज से 10 अरब गुना और हमारी आकाशगंगा के सबसे विराट ब्लैकहोल से 10000 गुना अधिक है। इस तरह यह अब तक देखा गया विशालतम ब्लैकहोल है। इस तरह के अधिकांश ब्लैकहोल उस पदार्थ के माध्यम से देखे जाते हैं जिसे वे अपनी ओर खींचते हैं। आसपास का पदार्थ ब्लैकहोल के नजदीक जाते ही गरम हो जाता है। खगोल वैज्ञानिक इस रेडिएशन को देख कर ब्लेक होल का पर्यवेक्षण का सकते हैं। डॉ. बनर्जी की खोज के बाद खगोल वैज्ञानिक ब्रंाांड के उन कोनों को फिर से देखेंगे.जो धूल के घने बादलों में छिपे हुए हैं।
आखिर क्या होते हैं ये ब्लैकहोल? ब्लैकहोल अंतरिक्ष का वह क्षेत्र हैं जहां शक्तिशाली गुरुत्वाकर्षण के कारण वहां से प्रकाश बाहर नहीं निकल सकता। इसमें गुरुत्वाकर्षण बहुत ज्यादा इसलिए है क्योंकि पदार्थ को बहुत छोटी जगह में फिट होना पड़ता है। ऐसा तारे के नष्ट होने की स्थिति में होता है। चूंकि यहां से प्रकाश बाहर नहीं आ सकता। लोग इन्हें नहीं देख सकते। ये अदृश्य होते हैं। किसी तारे के नष्ट होने पर ब्लैकहोल बनता है। ब्लैकहोल छोटे और बड़े दोनों हो सकते हैं। वैज्ञानिकों का खयाल है कि सबसे छोटे ब्लैकहोल एक अणु जितने छोटे हैं। ये ब्लेक होल भले ही छोटे हों लेकिन उनका द्रव्यमान अथवा मॉस एक पहाड़ के बराबर होता है। द्रव्यमान एक वस्तु के अंदर पदार्थ की मात्रा को कहा जाता है। बड़े ब्लैकहोल स्टेलर कहलाते हैं। उनका द्रव्यमान सूरज के द्रव्यमान से 20 गुना तक ज्यादा होता है। सबसे बड़े ब्लैकहोल सुपरमैसिव कहलाते हैं क्योंकि उनका द्रव्यमान 10 लाख सूर्यो से भी ज्यादा होता है। हमारी मिल्कीवे आकाशगंगा में सुपरमैसिव ब्लैकहोल का नाम सैगिटेरियस है। इसका द्रव्यमान 40 लाख सूर्यो के बराबर है।
वैज्ञानिकों का खयाल है कि ये ब्लैकहोल दूसरी आकाशगंगाओं के साथ जबरदस्त टक्करों के बाद विशाल रूप लेने लगते हैं। इस प्ररिया में तारे बनते है और ब्लैकहोल इन्हें निगलने लगते हैं। इस हिंसक मुठभेड़ से आकाशगंगाओं के अंदर धूल भी पैदा होती है। ब्लैकहोल का जबरदस्त गुरुत्वाकर्षण इस धूल को अपनी ओर खींच लेता है। नया खोजा गया दैत्याकार ब्लैकहोल आकाशगंगा के सबसे लाल पदार्थो में से है। इसका लाल रंग आसपास की धूल की वजह से है। डॉ. मंदा बनर्जी ने 2009 में यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लंदन से सुदूर ब्रंाांड में आकाशगंगाओं पर पीएचडी की थी। इस समय वह अपने अध्ययन के जरिये यह पता लगाने की कोशिश कर रही हैं कि आकाशगंगाओं का विकास कैसे हुआ।