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Wednesday 10 October 2012

सपने देखने में डर लगता है अब... || जगजीत सिंह : प्रथम पुण्य स्मरण पर विशेष



हर इंसान अपनी जिंदगी किसी ख्वाब के साथ (सहारे) और किसी न किसी सपने के लिए जीता है। सपने... जो हमारे खुरदुरे जीवन को मखमली चादर में लपेटते हैं। पर अब, जगजी‍त सिंह की मृत्यु के बाद (प्रथम पुण्य स्मरण) मुझे सपने देखने में डर-सा लगने लगा है। गोया सपनों पर हमारा इख्तियार नहीं होता, पर....।

अब तक की जिंदगी में यूं तो कई लोगों ने मुझे प्रभावित किया है। पर दो ऐसे शख्स हैं- जिनसे मिलने की ख्वाहिश थी। एक हैं युगपुरुष महादानी कर्ण, जिनसे मिल पाना तो खैर मुमकिन था ही नहीं। दूसरी शख्सियत है जग को जी‍त लेने वाली हर दिल अजीज आवाज। बेमिसाल फनकार जगजीत सिंह, जिनसे मिलना अब सपना बनकर रह गया है। अब वे फलक पर चमकते सितारे हैं जिसे छूना नामुमकिन है। पिछले बरस आज ही के दिन हमेशा के लिए खामोश हो गई इस आवाज के मोहपाश से, उनके वजूद के सम्मोहन से कोई बाहर नहीं आ पाएगा। वो जो रवानी थी जिंदगी में, अब कमतर होती दिखती है।

वैसे जगगीत सिंह जी की मकबूलियत गजल गायक के तौर पर ज्यादा रही पर मेरा ख्याल है कि यदि आप उनके शबद या पंजाबी गीत सुनें तो जरूर मानेंगे कि मो. रफी के बाद जगजीत ही वो सदाकत आवाज है जिसके बुलाने पर ईश्वर प्रकट होते होंगे। उनके गायन और आवाज की तो खैर पूरी ‍दुनिया ही दीवानी है पर उनकी शख्सियत भ‍ी उतनी ही वजनदार है। उनकी जिंदादिली, सादगी और साफगोई आपको उनका कायल कर देती है।

इंदौर में उनकी महफिलों का हिस्सा बनकर ही मैंने ऐसा महसूस किया है। उनकी महफिल कभी खत्म न हो यही इच्छा सबके मन में रहती होगी। शायद वो सबके दिलों में जिंदादिली और जोश भर देने का उद्देश्य लेकर ही महफिल का आगाज करते थे और अंजाम यह होता कि फिर रात नहीं, दिन ही दिन होता।

खैर अब इन बातों से उनकी याद की कसक और बढ़ जाए तो क्या कीजिएगा। उनकी मौत के बाद कई आलोचनाकारों ने अपने लेखों और विचारों के जरिए (जगजीत सिंह के बारे में) नकारात्मक टिप्पणियां भी कीं। इसने जगजीत के मुरीदों को अप्रत्यक्ष रूप से आहत किया है। आज जगजीत की प्रथम पुण्यतिथि पर उन सभी से गुजारिश है कि अपने तमाम आग्रहों और झुकावों को नजरअंदाज कर जगजीत की ये गजलें सुनें...


दिल को क्या हो गया खुदा जाने, अपना गम भूल गए, सोचा नहीं अच्छा बुरा, इश्क में गैरते, माना कि मुश्ते खाक से, नजरे करम फरमाओ, ‍दीनन दुख मैं रोया परदेस में, हम तो हैं परदेस में, बात निकलेगी, बात साकी की ना टाली जाएगी, हे राम, उम्र जलवों में और... खैर बहुत लंबी लिस्ट है पर इन गजलों को सुनें और जन्नत का लुत्फ उठाएं।

इस जांबख्श आवाज ने अपने हर मुरीद को गजलों की दौलत से अमीर बना दिया है। वो खुद हमारे व्यक्तिगत खजाने के सबसे नायाब नगीने हैं। जब मैंने पहली बार मृत्युंजय (शिवाजी सावंत द्वारा लिखित पुस्तक) पढ़ी तब से कर्ण का व्यक्तित्व मेरे अस्तित्व पर छा-सा गया था। तभी से सोचा था कि ये किताब उस शख्स को भेंट करूंगी जो मुझे बेइंतहा मुतासिर करेगा।

जब जगजीत जी की आवाज पहली बार सुनी तब ये तय हो गया कि यह किताब उन्हीं को देना है। जब उनकी गजलों को पहली बार लाइव सुना तभी से यह तोहफा साथ लिए रखा। इस उम्मीद में कि शायद कभी उनसे मुलाकात हो जाए पर...।

हर महफिल के बाद इस भेंट में एक-एख चीज और जुड़ती गई और अब मखमली कपड़े में लिपटी वो किताब, एक चंदन की तस्बीह (माला), जगजीत की ही कैसेट के कवर पर बना (अधूरा) उनका पोर्ट्रेट और तेजस्वी सूर्य की छोटी-सी पेंटिंग बस यही छोटी-सी पूंजी मेरे खजाने की बरकत बनी रहेगी, ताउम्र। उनसे मिलकर उन्हीं की गजल गिटार पर सुनाने की ख्वाहिश भी उनके साथ ही खत्म हो गई, शायद। पुर्नजन्म जैसी कोई शै वाकई होती हो तो इन हसरतों को पूरा कर पाने की कोई सूरत बने, आमिन।

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले... क्या खूब फरमा गए हैं मिर्जा गालिब। जगजीत को गुजरे आज (10 अक्टूबर) पूरा एक बरस हो गया। उन्हें हमारी श्रद्धां‍जलि।

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